Sunday, October 19, 2014

"खेती किसानो के लिए लाभदायक" |

खेती किसानी से जुड़ा हूँ तो दो बातेँ इसी पर:
भूमिहिनों के लिये ये एक बिकल्प हो सकता है कि ओ नदी के किनार के बालू बाले जमीनों को स्थानिय निकाय गा.बी.स. से बात करके सालाना लीज पर लें और इस तरह सब्जी, और दूसरे सीजन में तरबुज,ककड़ी का उत्पादन कर आय आर्जन कर सकेँ !

मैंने ये कहा है ये 'भूमिहिनोँ" के लिये बिकल्प हो सकता है,  उन भू-स्वामिओँ के लिये नही जो सीँचाई का रोना रोते हुये बाग्मति से पूरब और कोशी से पश्चिम बहुत खेत वैसे ही बँजर छोड़ देते हैँ, जब की सामूहिक प्रयाश से बैकल्पिक सिँचाई का व्यवस्था ओ कर सकते हैँ और अगर बैकल्पिक सिँचाई धान,गेहूँ के उत्पादन लागत को बढाता है, नुक्सान होता है,  तो जमीन के उपयोगिता को देखते हुये बैकल्पिक उपज चाहे ओ दलहन हो, तेलहन हो के तरफ आकर्षित हो सकते हैँ! 

जमीन बँजर छोड़ देना तो हल नही है l ओ भूमिहिन जो कृषिजन्य कार्यों में मजदूरी इत्यादि करते हैँ उनके जीवन स्तर को उठाने में जहाँ ये एक बिकल्प हो सकता है वही "सामुहिक खेती" के अवधारणा को बिज्ञ लोग जाँच परख के अगर मधेश के किसानों को समझा सकेँ,प्रेरित कर सकेँ तो उनके जीवन स्तर में निश्चित फर्क पड़ेगा !
उन्हे स्थानिय व्यापारीयों के सीन्डीकेटीँग से मुक्ति मिलेगी, बजार तक सीधा पहुँच होने से भाव अच्छा मिलेगा, कृषि परामर्श दाताओँ के सहयोग से जहाँ अतिरिक्त जानकारीयाँ मिलेँगी, समुहगत रुपसे जब ओ गोलबँद होँगे उन्हेँ पूँजी सँकलन आदि की कठिनाईयोँ से छूटकारा और आधुनिक कृषी उपकरण तक पहुँच भी आसान हो जायेगी...!

इसलिये पोष्ट कर रहा हूँ कि आज नही तो कल...कभी न कभी हमें भी उस रास्ते पर चलना है जिस रास्ते पर 'हालेन्ड बासी-ईजरायल बासी" चले, जिनके पास भूमि कम है...,यही ओ चीज है जिसका क्षेत्रफल हम बढा नही सकते l
 बढता हुआ आवादी और जरुरतेँ हमें मजबूर करेँगी कि एक एक इँच जमीन का सदुपयोग हम करेँ !
तो फिर हम में से कोई एक ही क्यों न हो, क्यूँ न सोचे..क्यू न विचारेँ....खेती किसानी से जुड़ा हूँ तो दो बातेँ इसी पर:
भूमिहिनों के लिये ये एक बिकल्प हो सकता है कि ओ नदी के किनार के बालू बाले जमीनों को स्थानिय निकाय गा.बी.स. से बात करके सालाना लीज पर लें और इस तरह सब्जी, और दूसरे सीजन में तरबुज,ककड़ी का उत्पादन कर आय आर्जन कर सकेँ !
मैंने ये कहा है ये 'भूमिहिनोँ" के लिये बिकल्प हो सकता है, उन भू-स्वामिओँ के लिये नही जो सीँचाई का रोना रोते हुये बाग्मति से पूरब और कोशी से पश्चिम बहुत खेत वैसे ही बँजर छोड़ देते हैँ, जब की सामूहिक प्रयाश से बैकल्पिक सिँचाई का व्यवस्था ओ कर सकते हैँ और अगर बैकल्पिक सिँचाई धान,गेहूँ के उत्पादन लागत को बढाता है, नुक्सान होता है, तो जमीन के उपयोगिता को देखते हुये बैकल्पिक उपज चाहे ओ दलहन हो, तेलहन हो के तरफ आकर्षित हो सकते हैँ!
जमीन बँजर छोड़ देना तो हल नही है l ओ भूमिहिन जो कृषिजन्य कार्यों में मजदूरी इत्यादि करते हैँ उनके जीवन स्तर को उठाने में जहाँ ये एक बिकल्प हो सकता है वही "सामुहिक खेती" के अवधारणा को बिज्ञ लोग जाँच परख के अगर मधेश के किसानों को समझा सकेँ,प्रेरित कर सकेँ तो उनके जीवन स्तर में निश्चित फर्क पड़ेगा !
उन्हे स्थानिय व्यापारीयों के सीन्डीकेटीँग से मुक्ति मिलेगी, बजार तक सीधा पहुँच होने से भाव अच्छा मिलेगा, कृषि परामर्श दाताओँ के सहयोग से जहाँ अतिरिक्त जानकारीयाँ मिलेँगी, समुहगत रुपसे जब ओ गोलबँद होँगे उन्हेँ पूँजी सँकलन आदि की कठिनाईयोँ से छूटकारा और आधुनिक कृषी उपकरण तक पहुँच भी आसान हो जायेगी...!
इसलिये आज नही तो कल...कभी न कभी हमें भी उस रास्ते पर चलना है जिस रास्ते पर 'हालेन्ड बासी-ईजरायल बासी" चले, जिनके पास भूमि कम है...,यही ओ चीज है जिसका क्षेत्रफल हम बढा नही सकते l
बढता हुआ आवादी और जरुरतेँ हमें मजबूर करेँगी कि एक एक इँच जमीन का सदुपयोग हम करेँ !
तो फिर हम में से कोई एक ही क्यों न हो, क्यूँ न सोचे..क्यू न विचारेँ....

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